लेख-निबंध >> सदी के प्रश्न सदी के प्रश्नजितेन्द्र भाटिया
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प्रस्तुत है विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के सन्दर्भ में वैचारिक निबन्ध...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इक्कीसवीं सदी में सम्भवतः जीवन का कोई कोना नहीं है जो विज्ञान और
टेक्नॉलॉजी के स्पर्श से अछूता रह गया हो या जहाँ तकनीकी उपलब्धियों का
निरन्तर विस्तार न हो रहा हो।
लेकिन उपलब्धियों के इस दौर से चमत्कृत होते हुए भी हममें से अधिकांश को एक खौफ़-सा भी महसूस होता होगा। यह सारा तकनीकी विकास किसके लिए है और इसकी यह उठा-पटक हमें आखिर कहाँ ले जाएगी ? लेकिन महानतम वैज्ञानिक उपलब्धियों के दौर से चमत्कृत होते हुए भी अक्सर हममें से अधिकांश को एक खौफ़-सा महसूस होता होगा। यह सारा तकनीकी विकास किसके लिए है और इसकी यह उठा-पटक हमें आखिर कहाँ ले जाएगी ? हमारे बच्चे क्या सचमुच हमसे कहीं अधिक सुखी और समृद्ध जीवन बिता पाएँगे ? उपभोक्तावाद और सूचना क्रांति की इस अन्धी दौड़ में हमारी पारंपरिक समझ की पुरानी गठरी तो हमसे पीछे का मानवीय सत्य क्या है ? क्या इनके जरिए सचमुच इस दुनिया की बदहाली दूर हो सकेगी?
सदी के यह प्रश्न शायद हमारे वक्त के सबसे ज़रूरी और अहम सवाल हैं। लेकिन हमारे समय की विडम्बना है कि तकनीकी विकास के औचित्य एवं उसके सांस्कृतिक नैतिक पक्ष को विमर्श का विषय बनाने की रचनात्मक साहसिकता हमें अपने साहित्य में कहीं दिखाई नहीं देती।
सशक्त गद्यकार एवं तकनीकी जगत के जाने-माने विशेषज्ञ जितेन्द्र भाटिया इस पुस्तक के जरिये पहली बार विज्ञान की पक्षधरता एवं उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका को लेकर वे सारे असुविधाजनक और विचारोत्तेजक यक्ष-प्रश्न उठा रहे हैं, जिनसे यह सदी बचकर निकलती रही है लेकिन जिनके उत्तर तलाशे बगैर इस यान्त्रिक सभ्यता को पत्थरों का संसार बनने से बचना शायद असम्भव होगा।
लेकिन उपलब्धियों के इस दौर से चमत्कृत होते हुए भी हममें से अधिकांश को एक खौफ़-सा भी महसूस होता होगा। यह सारा तकनीकी विकास किसके लिए है और इसकी यह उठा-पटक हमें आखिर कहाँ ले जाएगी ? लेकिन महानतम वैज्ञानिक उपलब्धियों के दौर से चमत्कृत होते हुए भी अक्सर हममें से अधिकांश को एक खौफ़-सा महसूस होता होगा। यह सारा तकनीकी विकास किसके लिए है और इसकी यह उठा-पटक हमें आखिर कहाँ ले जाएगी ? हमारे बच्चे क्या सचमुच हमसे कहीं अधिक सुखी और समृद्ध जीवन बिता पाएँगे ? उपभोक्तावाद और सूचना क्रांति की इस अन्धी दौड़ में हमारी पारंपरिक समझ की पुरानी गठरी तो हमसे पीछे का मानवीय सत्य क्या है ? क्या इनके जरिए सचमुच इस दुनिया की बदहाली दूर हो सकेगी?
सदी के यह प्रश्न शायद हमारे वक्त के सबसे ज़रूरी और अहम सवाल हैं। लेकिन हमारे समय की विडम्बना है कि तकनीकी विकास के औचित्य एवं उसके सांस्कृतिक नैतिक पक्ष को विमर्श का विषय बनाने की रचनात्मक साहसिकता हमें अपने साहित्य में कहीं दिखाई नहीं देती।
सशक्त गद्यकार एवं तकनीकी जगत के जाने-माने विशेषज्ञ जितेन्द्र भाटिया इस पुस्तक के जरिये पहली बार विज्ञान की पक्षधरता एवं उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका को लेकर वे सारे असुविधाजनक और विचारोत्तेजक यक्ष-प्रश्न उठा रहे हैं, जिनसे यह सदी बचकर निकलती रही है लेकिन जिनके उत्तर तलाशे बगैर इस यान्त्रिक सभ्यता को पत्थरों का संसार बनने से बचना शायद असम्भव होगा।
पृष्ठभूमि
यानी यह किताब क्यों ?
इक्कीसवीं सदी को हम सहज ही वैज्ञानिक उपलब्धियों और इन्फार्मेशन
टेक्नॉलाजी (आई.टी.) के चमत्कारों की सदी मान सकते हैं। वैज्ञानिक विस्तार
की जिन सम्भावनाओं की हमने कल्पना भी नहीं की थी, वे आज सूचना क्रान्ति के
इस दौर में हमें रोजमर्रा की सामान्य जरूरतों में बदलती दिखाई दे रही हैं।
आज जीवन का कोई कोना नहीं है, जो विज्ञान व टेक्नालॉजी के स्पर्श से अछूता
रह गया हो और जहाँ तकनीकी उपलब्धियों का निरन्तर विस्तार न हो रहा हो।
लेकिन महानतम वैज्ञानिक उपलब्धियों के दौर से चमत्कृत होते हुए भी अक्सर
हममें से अधिकांश को एक खौफ़-सा महसूस होता होगा। यह सारा तकनीकी विकास
किसके लिए है और इसकी यह उठा-पटक हमें आखिर कहाँ ले जाएगी ? विज्ञान और
सूचना-क्रान्ति की यह अन्धी दौड़ कहीं हमें व्यक्तित्वविहीन
‘उपभोक्ता’ बनाकर किसी भारी मशीनरी के निर्जीव
कल-पुर्जें में
तो नहीं बदल डालेगी ? चमत्कारी ज्ञान की इस आपाधापी में कहीं हमारी
पारम्परिक समझ की पुरानी गठरी तो हमसे पीछे नहीं छूटी जा रही ? हमारे
बच्चे क्या सचमुच हमसे कहीं अधिक सुखी और समृद्ध जीवन बिता पाएँगे ? इतना
सारा और इतना हैरतअंगेज़ विकास क्या सचमुच इस दुनिया की बदहाली को दूर कर
सकेगा, या कि इससे गरीब समाज और गरीब होता जाएगा और समृद्ध ताकतों की पहले
से मोटी जेबें कुछ और भारी होती चली जाएँगी ?
हममें से बहुतेरों के लिए टेक्नॉलाजी का चेहरा एक ‘एक अपरिभाषित काले, अँधेरे डिब्बे’ की तरह हो सकता है लेकिन फिर भी हम डिब्बे के बढ़ते प्रभाव क्षेत्र से इंकार नहीं कर सकते। इन्हीं अर्थों में टेक्नॉलॉजी के विकासक्रम और इसके वर्चस्व को लेकर उठने वाले हमारे भोले संशय शायद हमारे समय के सबसे जरूरी और अहम सवाल हैं। लेकिन यह एक भारी विडम्बना है कि हमारे समय ने विज्ञान को एक शाश्वत और निरपेक्ष विधा पर गौरवान्वित दर्जा दे डाला है, जिसके चलते इसके औचित्य एवं सांस्कृतिक/नौतिक पक्ष को मुद्दा बनाकर सवाल उठाना असुविधाजनक एवं तहजीब के खिलाफ बन गया है। इन सावलों के पूछे जाने में विज्ञान के सुन्दर, अभिजात चेहरे पर से पर्दा उठ जाने का खतरा दिखाई देने लगता है। लेकिन फिर भी, तमाम असुविधाओं के बावजूद, हमें ये मुद्दे उठाने होंगे क्योंकि हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का सारा दारोमदार विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी से जुड़े इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर टिका है।
कुछ समय पहले मुम्बई में सम्पन्न हुए विश्व सामाजिक मंच पर दुनिया के कोने-कोने से आये हजारों सामान्य जनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आदिवासी प्रतिनिधियों के बीच टेक्नॉलॉजी और विकास से जुड़े इन्हीं और दूसरे अहम सवालों की अनुगूँज बार-बार सुनी जा सकती थी। यानी तमाम तकनीकी उपलब्धियों, वैश्विक बाजारीकरण के ऊँचे ऐलानों और ‘इण्डिया स्माइलिंग’ के सम्मोहक विज्ञापनों की चमकीली सतह के भीतर के अंधेरे से फूटते ये सवाल कि सुरंग के उस छोर पर बार-बार दिखालाई जाती सफेद मरीचिका क्या सचमुच वह सुबह है जिसके आने से बकौल साहिर, ‘इन काली सदियों के सर से रात का आँचल ढलकेगा’, या कि वह मंजिल जिसके लिए फ़ैज़ ने कहा था कि
हममें से बहुतेरों के लिए टेक्नॉलाजी का चेहरा एक ‘एक अपरिभाषित काले, अँधेरे डिब्बे’ की तरह हो सकता है लेकिन फिर भी हम डिब्बे के बढ़ते प्रभाव क्षेत्र से इंकार नहीं कर सकते। इन्हीं अर्थों में टेक्नॉलॉजी के विकासक्रम और इसके वर्चस्व को लेकर उठने वाले हमारे भोले संशय शायद हमारे समय के सबसे जरूरी और अहम सवाल हैं। लेकिन यह एक भारी विडम्बना है कि हमारे समय ने विज्ञान को एक शाश्वत और निरपेक्ष विधा पर गौरवान्वित दर्जा दे डाला है, जिसके चलते इसके औचित्य एवं सांस्कृतिक/नौतिक पक्ष को मुद्दा बनाकर सवाल उठाना असुविधाजनक एवं तहजीब के खिलाफ बन गया है। इन सावलों के पूछे जाने में विज्ञान के सुन्दर, अभिजात चेहरे पर से पर्दा उठ जाने का खतरा दिखाई देने लगता है। लेकिन फिर भी, तमाम असुविधाओं के बावजूद, हमें ये मुद्दे उठाने होंगे क्योंकि हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का सारा दारोमदार विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी से जुड़े इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर टिका है।
कुछ समय पहले मुम्बई में सम्पन्न हुए विश्व सामाजिक मंच पर दुनिया के कोने-कोने से आये हजारों सामान्य जनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आदिवासी प्रतिनिधियों के बीच टेक्नॉलॉजी और विकास से जुड़े इन्हीं और दूसरे अहम सवालों की अनुगूँज बार-बार सुनी जा सकती थी। यानी तमाम तकनीकी उपलब्धियों, वैश्विक बाजारीकरण के ऊँचे ऐलानों और ‘इण्डिया स्माइलिंग’ के सम्मोहक विज्ञापनों की चमकीली सतह के भीतर के अंधेरे से फूटते ये सवाल कि सुरंग के उस छोर पर बार-बार दिखालाई जाती सफेद मरीचिका क्या सचमुच वह सुबह है जिसके आने से बकौल साहिर, ‘इन काली सदियों के सर से रात का आँचल ढलकेगा’, या कि वह मंजिल जिसके लिए फ़ैज़ ने कहा था कि
वो जिसकी दीद में लाखों मसर्रतें पिन्हां
वो हुस्न जिसकी तमन्ना में जन्नतें पिन्हां
वो हुस्न जिसकी तमन्ना में जन्नतें पिन्हां
और अगर नहीं तो फिर यह कौन-सा छल, कौन-सा बहकावा है जिसकी रौ में सारी
दुनिया यूँ बहे चली जा रही है, जबकि हमसे बहुतेरों के पास पीने के लिए
पानी, खाने के लिए रोटी और रहने के लिए घर तक नहीं है ?
‘टेक्नॉलॉजिकल हाइजैकिंग’ के इस युग में विश्व
सामाजिक मंच का
आयोजन असन्तुलित विकास के इस अँधेरे में महज एक सामूहिक चीख नहीं है।
बल्कि इसका यह ऐलान, कि एक और दुनिया सम्भव है, कहीं हमें धुवीकृत
टेक्नालॉजी से लदी-पटी इस दुनिया के विकल्पों को ढूँढ़ने के लिए भी
प्रेरित करता है। इन विकल्पों तक पहुँचने के लिए पहले हमें सुरंग के छोर
पर बार-बार दिखलाई जानेवाली उस काले बक्से वाली मरीचिका को पहनना और
पहचानने के बाद स्वीकराने या अस्वीकृत करने का कठिन निर्णय लेना होगा।
यदि रिटॉरिक का सहारा न भी लिया जाए तो मोटे तौर पर हमें निम्नांकित सवालों के जवाब तरतीबवार ढंग से ढूँढ़ने होंगे :
• आज जिसे हम विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के नाम से जानते हैं, क्या वह एक निरपेक्ष विधा है या कि सदियों से उसका कोई वर्गचरित्र रहा है ?
• ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है’ की तर्ज पर यदि हम मानते हैं कि टेक्नॉलॉजिकल विकास हमारी समूची सामाजिक आकांक्षाओं का प्रतिफलन होता है, या होना चाहिए, तो क्या आज का विज्ञान इस महत्त्वपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारी को निभा रहा है ?
• विज्ञान, सत्ता संस्कृति, उपभोक्तावाद और आर्थिक उपनिवेशवाद के बीच के अन्तस्संबंध क्या हैं ? इस धरती के संसाधानों के बदइस्तेमाल के लिए कौन जिमेमदार है ?
• बहुराष्ट्रीय आर्थिक ताकतों द्वारा प्रायोजित ‘कॉरपोरेट रिसर्च’ से क्या मानवधर्म होने की उम्मीद की जा सकती है ? अगर नहीं तो फिर मानव हितों के लिए काम करनेवाली टेक्नॉलॉजी की परिकल्पना क्या हो सकती है ?
• और आखिरकार, विज्ञान अथवा टेक्नॉलॉजी को इस दुनिया की बृहत्तर सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुरूप ढालने के लिए किस तरह के कदम उठाए जा सकते हैं ?
यह किताब विज्ञान और टेक्नॉलॉजी से जुड़े इन्हीं सवालों के इर्दगिर्द रची-बसी है। यह जानते हुए भी कि इन सवालों के जवाब बेहद कठिन और जटिल हैं।
एक नजरिये से इस किताब को आप मेरे दुष्कर्मों का प्रायश्चित भी मान सकते हैं। साहित्य की दुनिया में मेरा परिचय अक्सर ‘इंजीनियर होकर हिन्दी में लिखने वाले अजूबे’ के रूप में कराया जाता रहा है और कॉरपोरेट दुनिया के दोस्तों ने मेरे हिन्दी में लिखने को ‘एक हैरतअंगेज विकार’ का दर्जा देकर अकसर मुझे अपनी अधिक फायदेमन्द तकनीकी जड़ों की ओर लौट जाने की नेक सलाह दी है। रिसर्च संस्थानों, पब्लिक सेक्टर कंपनियों और मल्टीनेशनल उद्यमों का तीस बरस लम्बा सफर तय करने के बाद एक मोड़ भी आया जब मुझे ‘बस बहुत हुआ।’ कहने पर मजबूर होना पड़ा। यह मजबूरी किन्हीं अर्थों में एक नयी तरह की आजादी का ऐलान भी थी। व्यावसायिक जीवन में तमाम समझौंतों के बावजूद मैंने अपनी पक्षधारता की कीमत भी चुकायी है। लेकिन यह मौका गौरवान्वित महसूस करने का नहीं, बल्कि बहुत विनम्रता के साथ अपनी तमाम बदकारियों का निचोड़ प्रस्तुत करने का है। इन्हीं अर्थों में हिन्दी की यही किताब साहित्य और टेक्नॉलॉजी की मेरी दो कायनातों को जोड़ने वाला पुल है शायद। साहिर के शब्दों में कहूँ तो-
दुनिया ने तजुर्बातो-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं
यदि रिटॉरिक का सहारा न भी लिया जाए तो मोटे तौर पर हमें निम्नांकित सवालों के जवाब तरतीबवार ढंग से ढूँढ़ने होंगे :
• आज जिसे हम विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के नाम से जानते हैं, क्या वह एक निरपेक्ष विधा है या कि सदियों से उसका कोई वर्गचरित्र रहा है ?
• ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है’ की तर्ज पर यदि हम मानते हैं कि टेक्नॉलॉजिकल विकास हमारी समूची सामाजिक आकांक्षाओं का प्रतिफलन होता है, या होना चाहिए, तो क्या आज का विज्ञान इस महत्त्वपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारी को निभा रहा है ?
• विज्ञान, सत्ता संस्कृति, उपभोक्तावाद और आर्थिक उपनिवेशवाद के बीच के अन्तस्संबंध क्या हैं ? इस धरती के संसाधानों के बदइस्तेमाल के लिए कौन जिमेमदार है ?
• बहुराष्ट्रीय आर्थिक ताकतों द्वारा प्रायोजित ‘कॉरपोरेट रिसर्च’ से क्या मानवधर्म होने की उम्मीद की जा सकती है ? अगर नहीं तो फिर मानव हितों के लिए काम करनेवाली टेक्नॉलॉजी की परिकल्पना क्या हो सकती है ?
• और आखिरकार, विज्ञान अथवा टेक्नॉलॉजी को इस दुनिया की बृहत्तर सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुरूप ढालने के लिए किस तरह के कदम उठाए जा सकते हैं ?
यह किताब विज्ञान और टेक्नॉलॉजी से जुड़े इन्हीं सवालों के इर्दगिर्द रची-बसी है। यह जानते हुए भी कि इन सवालों के जवाब बेहद कठिन और जटिल हैं।
एक नजरिये से इस किताब को आप मेरे दुष्कर्मों का प्रायश्चित भी मान सकते हैं। साहित्य की दुनिया में मेरा परिचय अक्सर ‘इंजीनियर होकर हिन्दी में लिखने वाले अजूबे’ के रूप में कराया जाता रहा है और कॉरपोरेट दुनिया के दोस्तों ने मेरे हिन्दी में लिखने को ‘एक हैरतअंगेज विकार’ का दर्जा देकर अकसर मुझे अपनी अधिक फायदेमन्द तकनीकी जड़ों की ओर लौट जाने की नेक सलाह दी है। रिसर्च संस्थानों, पब्लिक सेक्टर कंपनियों और मल्टीनेशनल उद्यमों का तीस बरस लम्बा सफर तय करने के बाद एक मोड़ भी आया जब मुझे ‘बस बहुत हुआ।’ कहने पर मजबूर होना पड़ा। यह मजबूरी किन्हीं अर्थों में एक नयी तरह की आजादी का ऐलान भी थी। व्यावसायिक जीवन में तमाम समझौंतों के बावजूद मैंने अपनी पक्षधारता की कीमत भी चुकायी है। लेकिन यह मौका गौरवान्वित महसूस करने का नहीं, बल्कि बहुत विनम्रता के साथ अपनी तमाम बदकारियों का निचोड़ प्रस्तुत करने का है। इन्हीं अर्थों में हिन्दी की यही किताब साहित्य और टेक्नॉलॉजी की मेरी दो कायनातों को जोड़ने वाला पुल है शायद। साहिर के शब्दों में कहूँ तो-
दुनिया ने तजुर्बातो-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं
-जितेन्द्र भाटिया
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आधुनिकता, विकास, संस्कृति एवं टेक्नॉलॉजी
आज का युग तकनीकी उपलब्धियों और विशिष्टताओं का युग है और स्पेशलाइजेशन की
इस सदी में हम चीजों को खानों में बाँटकर देखने के बेतरह आदी होते जा रहे
हैं। विशुद्ध और सैद्धान्तिक विज्ञान (pure sciences) से काफी फासला बनाये
रखते हुए हमने व्यवहारिक विज्ञान (applied sciences) की परिभाषाएँ तय की
हैं और जीवन विज्ञान (life sciences) जैसी संज्ञा के इस्तेमाल के बावजूद
आज तक हम यह मानते चले आये हैं कि टेक्नॉलॉजी कमोबेश एक वस्तुगत
(objective) विधा है और सामाजशास्त्र इससे बिल्कुल अलग-थलग एक आत्मगत
(subjective) विमर्श का विषय, जिसकी वजह से इन दोनों विधाओं पर एक साथ
बातचीत हो ही नहीं सकती ! लेकिन वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं सामाजिक ज्ञान
क्या सचमुच एक-दूसरे से उतने ही अलग-थलग हैं जितना हम हमेशा मानते आये हैं
?
क्या इन दोनों के बीच कोई अनिवार्य या जरूरी रिश्ता नहीं होना चाहिए, और विज्ञान की तथाकथित ‘निरपेक्षता’ क्या सचमुच सूरज और चाँद की तरह शाश्वत है या कि इस निरपेक्ष चेहरे के पीछे युग-युगान्तर से चली आती कोई पक्षतापूर्ण मानवीय सोच छिपी बैठी है ? हमारे समूचे ज्ञान के बावजूद ये और इसी तरह से दूसरे सवाल सम्भवत: हमारी इस सदी के सबसे जरूरी एवं विचारणीय मसले बनते जा रहे हैं जिनसे कतराकर निकल जाना अब किसी भी सोचने-समझने वाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं रह गया है।
क्या इन दोनों के बीच कोई अनिवार्य या जरूरी रिश्ता नहीं होना चाहिए, और विज्ञान की तथाकथित ‘निरपेक्षता’ क्या सचमुच सूरज और चाँद की तरह शाश्वत है या कि इस निरपेक्ष चेहरे के पीछे युग-युगान्तर से चली आती कोई पक्षतापूर्ण मानवीय सोच छिपी बैठी है ? हमारे समूचे ज्ञान के बावजूद ये और इसी तरह से दूसरे सवाल सम्भवत: हमारी इस सदी के सबसे जरूरी एवं विचारणीय मसले बनते जा रहे हैं जिनसे कतराकर निकल जाना अब किसी भी सोचने-समझने वाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं रह गया है।
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